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प्रेम का मूल्य – Valentine Contest

मेरी नज़र मे -
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ये प्रेम किन्ही शब्दों का मोहताज नहीं होता,
इस दिल में यूं ही हर किसी का राज नहीं होता,
प्रेम के दर्शाने के लिए किसी खास दिन का इंतज़ार क्यों करें,
क्या जीवन का हर एक पल प्रेम पाने का हकदार नहीं होता.

प्रेम भगवान की तरह है जिसको जानने का दावा सभी करते हैं पर इससे साक्षात्कार किसी बिरले को ही होते हैं। प्रेम का दावा करने वाले लोग उसी तरह के हैं जैसे किसी पत्थर की मूर्ति को देख कर ही कोई भगवान के दर्शन करने का दावा कर ले। वो लोग जो मंदिर मे होकर आए है वो झूठ नहीं कह रहे की उन्होने भगवान देखे हैं।

वो जो मूर्ति है वो भगवान ही हैं। जिन लोगों के भीतर भाव था उन्होने उस मूर्ति से भी भगवान को पाया है। उसी तरह आकर्षण भी प्रेम की प्रथम सीढी हो सकता है परंतु शुद्ध प्रेम नहीं। इसलिए प्रेम पाने या दर्शाने के लिए किसी समय का इंतज़ार क्यों ? यदि आपके ह्रदय में भाव है तो प्रेम के दर्शन कभी भी कहीं भी हो सकते हैं।

प्रेम स्वाद की तरह है जिसे खा कर ही उसे समझा जा सकता है। यदि कोई शब्दों मे उस स्वाद का वर्णन करे तो सुनने मे प्रीतिकर लग सकता है पर ज्यों ही पकवान मुह मे रखा जाएगा तो उसके स्वाद मे कहे गए सारे ही शब्द झुठे लगने लगते हैं क्योकि शब्दों का कितना ही विस्तार कर दिया जाए उसको एहसास मे नहीं बदला जा सकता हैं क्योंकि प्रेम एक खूबसूरत एहसास है।

सच्चे प्रेम के लिए जान दे देना इतना मुश्किल नहीं है जितना मुश्किल है ऐसे सच्चे प्रेम को ढूँढ़ना जिस पर जान दी जा सके क्योकि कई बार प्रेम शब्दों से शुरू होकर शब्दों में ही खत्म हो जाता है वो अपनी पूर्ण अवस्था को प्राप्त ही नहीं कर पाता जहां दो लोग अलग अलग न होकर एक से ही हो जाते हैं, जहां मतभेद ओर मन भेद जैसे शब्द समाप्त हो जाते है, जहां हर तरह का अहं समाप्त हो जाता है, जहां तेरा-मेरा खत्म हो जाता है, कोई शिकवा शिकायत नहीं रहती, जहां प्रेमी / प्रेमिका कभी एक दूसरे के स्वामी तो कभी दास से नजर आते हैं। जिस तरह किसी बंधन का अपने मूल को छोडना तथा वृक्ष के लिए उसकी जड़ को छोड़ना मुश्किल है, उसी तरह मनुष्य के लिए प्रेम को छोडना बहुत कठिन है। प्रेम मनुष्य के भीतर ही है पर उसकी अवस्था सुसुप्त है, उसको जगा कर ही प्रेम किया ओर पाया जा सकता है।

प्रेम पंथ ऐसी कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं
रहिमन मैन-तुरगि बढि, चलियो पावक माहिं
फरजी सह न ह्म सकै गति टेढ़ी तासीर
रहिमन सीधे चालसौं, प्यादा होत वजीर।

कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम का मार्ग ऐसा दुर्गम हे कि सब लोग इस पर नहीं चल सकते। इसमें वासना के घोड़े पर सवाल होकर आग के बीच से गुजरना होता है तथा प्रेम में कभी भी टेढ़ी चाल नहीं चली जाती। जिस तरह शतरंज के खेल में पैदल सीधी चलकर वजीर बन जाता है वैसे ही अगर किसी व्यक्ति से सीधा और सरल व्यवहार किया जाये तो उसका दिल जीता जा सकता है।

प्रेम बाह्य उपाधि, पद, प्रतिष्ठा, सम्मान को देख कर नहीं होता क्योंकि स्वार्थ से ग्रसित प्रेम को यदि कोई प्रेम समझे तो ये केवल उसका भ्रम है तथा व्यापर का एक रूप है। प्रेम में कुछ पाने का आकर्षण हो तो वह प्रेम नहीं रह जाता है। किसी रूपसी के रूप को पाने का, किसी धनवान का धन को पाने का या किसी प्रभावशाली व्यक्ति के प्रभाव को प्राप्त अक्सर लोग प्रेम का दिखावा करते हैं पर उनके मन में लालच और लोभ भरा रहता है। लोग दूसरे का प्यार पाने के लिये चालाकियां करते हैं जो कि प्यार नहीं धोखा है क्योंकि प्रेम तो माँ की तरह है ओर त्याग पुत्र की तरह अतः प्रेम जहाँ जाता है अपने बेटे त्याग को साथ ले जाता है। प्रेम वास्तव मे शर्तों से बंधनो से ओर शब्दों से परे का विषय है क्योंकि पुष्प की सुगंध वायु के विपरीत कभी नहीं जाती लेकिन प्रेम की महक सब ओर फैल जाती है।

प्रेम सर्वत्र है । प्रकृति के कण कण मे प्रेम है। आवश्यकता तो बस प्रेम पूर्वक देखने कि है। वृक्ष, नदियां, पर्वत, सूर्य, चन्द्र आदि सभी प्रेम मे सराबोर है। ये तो प्रेम मे इतने डूबे हुए है कि अपने अंचल से दूसरों के लिए लुटाते चले जा रहे हैं। प्रेम तो संगीत है। जब कहीं संगीत बजता है तो हम बरबस ही नृत्य को तैयार हो जाते हैं, झूमने लगते हैं, क्योंकि संगीत मे तो प्रेम बसता है तथा इसीलिए मनुष्य भी उस संगीत रूपी प्रेम मैं डूबकर बस प्रेममय हो जाता है। झरने से गिरता हुआ पानी हो अथवा किसी पक्षी की आती हुई आवाज़ हो, क्या ये संगीत से भरे हुए नहीं हैं, क्या इनमे प्रेम प्रकट नहीं होता है ?
प्रेम मे प्रेमी दास भी है और स्वामी भी क्योंकि जिसके प्रति प्रेम होता है उसके साथ छोटे ओर बड़े का भेद समाप्त हो जाता है। कभी व्यक्ति दास की तरह प्रतीत होता है तो कभी स्वामी नजर आता है क्योंकि प्रेम अकृत्रिम सुख है। संसार का सारा धन खर्च कर के भी इसको प्राप्त नहीं किया जा सकता। प्रेम में गुण निवास करते हैं, वस्तु में नहीं। सच्चा प्रेम सुंदरता, रूप-रंग, ज्ञान, धन जैसी वस्तुओं को मूल्य नहीं देता, वो जिस वस्तु से होता है उसी को मूल्यवान बना देता है।

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